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राणा पुंजा का पूरा इतिहास, complete history of rana punja,

राणा पुंजा का पूरा इतिहास, complete history of rana punja,



राणा पूंजा (Punja/Poonja) 16वीं सदी के एक वीर और नायक थे, जिन्होंने महाराणा प्रताप के साथ मिलकर मुग़ल साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। आइए उनके जीवन, योगदान और विरासत पर विस्तार से नज़र डालते हैं:

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## 🛡️ वंश, प्रारंभिक जीवन और पद

* राणा पूंजा सोलंकी राजपूत वंश के थे, जो पानरवा (Panarwa), मेवाड़ के अरावली क्षेत्र में बसता था ([maharanapratapsmaraksamiti.org][1], [en.wikipedia.org][2])।
* 1568 में महाराणा उदय सिंह ने उनके पूर्वज राणा हरपाल को “राणा” की उपाधि दी, और इसी वंश में पूंजा का जन्म हुआ ।

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## लड़ाई का मैदान: हल्दीघाटी

* 18 जून 1576 को हल्दीघाटी के युद्ध में राणा पूंजा ने भील समुदाय के 400+ कबीरधारी आदिवासी धनुषधारियों का नेतृत्व किया, जो महाराणा प्रताप की सेना का अभिन्न हिस्सा थे ([maharanapratapsmaraksamiti.org][1])।
* उनका प्रमुख कार्य महाराणा प्रताप की छाती को मजबूत करना और मुग़ल रसद मार्गों को बाधित करना था, जिससे संघर्ष जारी रखा जा सके ([en.wikipedia.org][3])।
* हालांकि युद्ध में मेवाड़ी सेना को जीत नहीं मिली, लेकिन राणा पूंजा और उनकी भील सेनाओं की लड़ाई लगातार चली, जिसने मुग़लों को सतर्क रखा ([maharanapratapsmaraksamiti.org][1])।

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## पहचान पर विवाद: राजपूत या आदिवासी नेता?

* कई आधुनिक स्रोत/राजनीतिक दल राणा पूंजा को भील नेता बताने लगे, लेकिन पानरवा की राजपूत परिवार ने इसे इतिहास का जानबूझकर विघटन करार दिया ([en.wikipedia.org][2])।
* उन्होने स्पष्ट किया कि पूंजा सोलंकी राजपूत थे, जिन्होंने भीलों को शामिल करके सामूहिक मोर्चा तैयार किया था, न कि वे स्वयं भील थे ([thestatesman.com][4])।

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## युद्ध के बाद कार्य और उत्तराधिकारी

* हल्दीघाटी के बाद भी पूंजा ने गैर-पारंपरिक युद्ध (गुरिल्ला) और मुग़ल रसद मार्गों पर हमले जारी रखे, जिससे महाराणा प्रताप को क्षेत्रीय पुनरुद्धार में मदद मिली ([maharanapratapsmaraksamiti.org][1])।
* उनके पश्चात उनके पुत्र राणा राम वंश संभाले, और आगे जाकर राणा राज सिंह के समय और औरंगजेब की आक्रांताओं में भी योगदान दिया ।

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## विरासत और स्मरण

* पानरवा का सोलंकी राजपूत वंश आज भी वहां मौजूद है, और राणा पूंजा की याद आदिवासी और राजपूत दोनों समुदायों में बनी हुई है ([en.wikipedia.org][2])।
* उनका जन्मदिन 5 अक्टूबर को मुठ्ठी उमंग से मनाया जाता है, खासकर मोती मगरी, उदयपुर में उनकी प्रतिमा पर श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं ([maharanapratapsmaraksamiti.org][1])।
* संसद परिसर में महाराणा प्रताप की टेब्लो में उनका अंश, राणा पुंजा को भील सेना के नेता के रूप में दर्शाता है ।

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## सारांश

| पहलु | विवरण |
| ----------- | -------------------------------------------------- |
| वंश | सोलंकी राजपूत, पानरवा, मेवाड़ |
| भूमिका | भीलों के साथ हल्दीघाटी में अहम नेतृत्व |
| पहचान विवाद | आदिवासी या राजपूत? – राजपूत, लेकिन भीलों के सहभागी |
| विरासत | आदिवासी-जाटू एकता, राजपूत वीरता, सामूहिक प्रतिरोध |

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## निष्कर्ष

राणा पूंजा न केवल वीर था, बल्कि एक वीरता व एकता का प्रतीक भी था। उन्होने अपनी जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर आदिवासी भीलों को संगठित किया और महाराणा प्रताप के सँग युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई। यही कारण है कि उनकी कहानी राजपूत–भील एकता का प्रेरक उदाहरण बनी हुई है।

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